सुनहरी धूप को शाम में ढलते देखा है

सुनहरी धुप को, 

शाम में ढलते देख है. 

चलते चलते मै ने, 

जब भी पलट कर यों ही देखा है,

 

अपने पदचिन्हों को भी 

धूल मे सिमटते देखा है, 

बिखेरा करते थे जो, जलवा-ए-हुस्न,  

सरे-ए-बाजार मै, 

उम्र के एक पड़ाव पर आ कर, 

उम्र को भी ढलते देखा है.


दौड़ा करते थे जो, 

बहुत तेज सफर-ए-मंज़िल-ए-सदा, 

वक्त के एक मोड़ पर आ कर,  

उन को भी थकते देखा है.

 बिखरा कर रोशनी अपने जलवे की, 

मिटा देता था जो रात के अंधियारे को, 

मै ने उस चाँद को भी ढलते देखा है.


दिया करती थी जो,

रंग-ए-बहार गुलशन को,

पतझड़ आने पर उस गुल को भी 

मुरझाते देखा है.


ना कर तू गुरुर अपने होने का,

मै ने तो हर वजूद को खाक में 

मिल जाते देखा है.   

{kanika}.

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