निराशा या दुख

बहुत समय तक प्रयत्न करने पर भी श्री गोपालचंद्र घोष को भावसमाधि न होती थी; जबकि अनेक व्यक्तियों को हो रही थी।  एक दिन उन्होंने अपनी यह निराशा श्री रामकृष्ण परमहंस के सम्मुख प्रकट की। श्री रामकृष्ण परमहंस ने कहा- "तू बड़ा कम बुद्धि का है। इसमें निराशा या दुख की क्या बात है? क्या तू समझता है कि भावसमाधि होने से सब कुछ हो जाता है। क्या यही सबसे बड़ी चीज है? सच्चा त्याग भाव और परमात्मा में पूरी आस्था उससे भी बड़ी चीज है। भावसमाधि न सही उच्च भावों का विकास करो उस नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) को देखो न, भावसमाधि की चिंता किए बिना ही अपने त्याग, विश्वास, निष्ठा और आस्था के कारण कितना तेजवान और उन्नत मन वाला तरुण है।" श्री गोपालचंद्र जी की समझ में यह तथ्य आया कि आस्था में स्थित होना भी समाधि रुप ही है। देश साधना क्रम में उत्साहपूर्वक बढ़ गए। 



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